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कंकाल-अध्याय -२८

यमुना पागल हो उठी। उसने देखा-सामने विजय बैठा हुआ अभी पी रहा है। रात पहर-भर जा चुकी है। वृन्दावन में दूर से फगुहारों की डफ की गम्भीर ध्वनि और उन्मत्त कण्ठ से रसीले फागों की तुमुल तानें उस चाँदनी में, उस पवन में मिली थीं। एक स्त्री आई, करील की झाड़ियों से निकलकर विजय के पीछे खड़ी हो गयी। यमुना एक बार सहम उठी, फिर उसने देखा-उस स्त्री ने हाथ का लोटा उठाया और उसका तरल पदार्थ विजय के सिर पर उड़ेल दिया। विजय के उष्ण मस्तक को कुछ शीतलता भली लगी। घूमकर देखा तो घण्टी खिलखिलाकर हँस रही थी। वह आज इन्द्रिय-जगत् के वैद्युत प्रवाह के चक्कर खाने लगा, चारों ओर विद्युत-कण चमकते, दौड़ते थे। युवक विजय अपने में न रह सका, उसने घण्टी का हाथ पकड़कर पूछा, 'ब्रजबाले, तुम रंग उड़ेलकर उसकी शीतलता दे सकती हो कि उस रंग की-सी ज्वाला-लाल ज्वाला! ओह, जलन हो रही है घण्टी! आत्मसंयम भ्रम है बोलो!' 'मैं, मेरे पास दाम न था, रंग फीका होगा विजय बाबू!' हाड़-मांस के वास्तविक जीवन का सत्य, यौवन आने पर उसका आना न जानकर बुलाने की धुन रहती है। जो चले जाने पर अनुभूत होता है, वह यौवन, धीवर के लहरीले जाल में फँसे हुए स्निग्ध मत्स्य-सा तड़फड़ाने वाला यौवन, आसन से दबा हुआ पंचवर्षीय चपल तुरंग के समान पृथ्वी को कुरेदने-वाला त्वरापूर्ण यौवन, अधिक न सम्हल सका, विजय ने घण्टी को अपनी मांसल भुजाओं में लपेट लिया और एक दृढ़ तथा दीर्घ चुम्बन से रंग का प्रतिवाद किया। यह सजीव और उष्ण आलिंगन विजय के युवा जीवन का प्रथम उपहार था, चरम लाभ था। कंगाल को जैसे निधि मिली हो! यमुना और न देख सकी, उसने खिड़की बन्द कर दी। उस शब्द ने दोनों को अलग कर दिया। उसी समय इक्कों के रुकने का शब्द बाहर हुआ। यमुना नीचे उतर आयी किवाड़ खोलने। किशोरी भीतर आयी। अब घण्टी और विजय आस-पास बैठ गये थे। किशोरी ने पूछा, 'विजय कहाँ है?' यमुना कुछ न बोली। डाँटकर किशोरी ने कहा, 'बोलती क्यों नहीं यमुना?' यमुना ने कुछ न कहकर खिड़की खोल दी। किशोरी ने देखा-निखरी चाँदनी में एक स्त्री और पुरुष कदम्ब के नीचे बैठे हैं। वह गरम हो उठी। उसने वहीं से पुकारा, 'घण्टी!' घण्टी भीतर आयी। विजय का साहस न हुआ, वह वहीं बैठा रहा। किशोरी ने पूछा, 'घण्टी, क्या तुम इतनी निर्लज्ज हो!' 'मैं क्या जानूँ कि लज्जा किसे कहते हैं। ब्रज में तो सभी होली में रंग डालती हैं, मैं भी रंग डाल आयी। विजय बाबू को रंग से चोट तो न लगी होगी किशोरी बहू!' फिर हँसने के ढंग से कहा, 'नहीं, पाप हुआ हो तो इन्हें भी ब्रज-परिक्रमा करने के लिए भेज दीजिये!' किशोरी को यह बात तीर-सी लगी। उसने झिड़कते हुए कहा, 'चलो जाओ, आज से मेरे घर कभी न आना!' घण्टी सिर नीचा किये चली गयी। किशोरी ने फिर पुकारा, 'विजय!' विजय लड़खड़ाता हुआ भीतर आया और विवश बैठ गया। किशोरी से मदिरा की गन्ध छिप न सकी। उसने सिर पकड़ लिया। यमुना ने विजय को धीरे से लिटा दिया। वह सो गया। विजय ने अपने सम्बन्ध की किंवदन्तियों को और भी जटिल बना दिया, वह उन्हें सुलझाने की चेष्टा भी न करता था। किशोरी ने बोलना छोड़ दिया था। किशोरी कभी-कभी सोचती-यदि श्रीचन्द्र इस समय आकर लड़के को सम्हाल लेते! परन्तु वह बड़ी दूर की बात थी। एक दिन विजय और किशोरी की मुठभेड़ हो गयी। बात यह थी कि निरंजन ने इतना ही कहा कि मद्यपों के संसर्ग में रहना हमारे लिए असंभव है! विजय ने हँसकर कहा, 'अच्छी बात है, दूसरा स्थान खोज लीजिये। ढोंग से दूर रहना मुझे भी रुचिकर है।' किशोरी आ गयी, उसने कहा, 'विजय, तुम इतने निर्लज्ज हो! अपने अपराधों को समझकर लज्जित क्यों नहीं होते नशे की खुमारी से भरी आँखों को उठाकर विजय ने किशोरी की ओर देखा और कहा, 'मैं अपने कर्मों पर हँसता हूँ, लज्जित नहीं होता। जिन्हें लज्जा बड़ी प्रिय हो, वे उसे अपने कामों में खोजें।'

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